छत पर
छत पे खडा मैं सोच रहा हूँ
तु क्या घर पर करती होगी
मेरी तरह यूहीं शाम को क्या
तु भी छत पर चढती होगी
वो भी क्या समय था जब हम
कभी रावी किनारे टहलते थे
कर के याद मिलन के दिन वो
क्या तु भी आंहे भरती होगी
....... मिलाप सिंह भरमौरी
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